‘आपन आरा’ के बहाने एगो खास दौर के शैक्षिक आ साहित्यिक पड़ताल:

घर परिवार से दूर, शहर के जिनगी में अपना के समायोजित करत कुछ बने के जद्दो-जेहाद आ ओह दौर में संपर्क में आइल साहित्यिक बिभूतियन के परिचय का संगे उनुका से ढेर कुछ सीखे-जाने के अरमान मन में जोगवले एगो युवा मन के दस्तावेज़ ह ‘आपन आरा’।’आपन आरा’ में लेखक अपने  जीवन के एगो महत्वपूर्ण कालखंड जेवन उ आरा कस्बा में विद्यार्थी जीवन के दौरान गुजरले बा — जुलाई १९७७ से जुलाई १९८७ के दौरान क खट-मीठ अनुभवन के बहुत बिस्तार से उकेरे क परयास कइले बाड़ें। ई समय लेखक के उच्च शिक्षा आ करियर बनावे-सँवारे के त दौर रहबे कइल, संगे-संगे उनुका भीतरि के लेखक के जनमे-पनपे के दौर रहल बा, उनुका व्यक्तित्व गढ़ाए के दौर रहल  बा। ओह दौर के साहित्यिक, राजनैतिक आ सामाजिक गतिविधि के ताना-बाना एह किताबि के प्राण तत्व लेखा उभर के सोझा आइल बा। सोझा त उहो कुछ आइल बा, जवन नवहा लोगन के सही राह से बिलगावे के कारक होला। लेखक बड़ सालीनता का संगे ओह कुल्हि चिजुइयन से किनारा करे के आ रहे के तौर तरीकन पर आपन लेखनी चलवले बाड़ें। लेखक ‘आरा’ में बितावल काल-खंड के बेगर कवनो लाग-लपेट के रेखांकित करे में कवनो कोताही नइखे कइले। लेखक के ई स्वीकारोक्ति  ‘ अपने स्मृतियन के बढ़िया से छान-बीनि के , ओसा-फटक के ज़रूर पाठकन के सामने परोसल जा सकेला ।’ सराहे जोग बा।

अब बतावत चलीं कि ‘आपन आरा’  चंद्रेश्वर जी के भोजपुरी में लिखाइल दोसरका संस्मरण भा स्मृति आख्यान ह, जवना में 27 गो अलग-अलग घटनवन के अपना तरीका से समेटल गइल बा। ई सगरे संस्मरण लेखक के छात्र जीवन के जीयल दिनन के शब्द चित्र ह, जवन बहुते खूबसूरती का संगे उकेरल गइल बा। ‘आपन आरा’ अपने में अपना गाँव-घर आ कस्बा के सोन्ह महक में सउनाइल पाठकन के सोझा दस्तक दे रहल बा। लेखक के दोसरकी स्वीकारोक्ति ‘ हम डड़ाँर धर के ना चलीं,अरारे धर के चलेनी’ उनुका लेखन शैली के सभेले अलगा खाड़ करि रहल बा। उनुका एह शैली में बस उनही के झलक़ बा। ‘ हमार नाल त ओहिजे गड़ाइल बा’  से लेखक अपने जड़ के निरूपित करत अपने लमहर उड़ान का बादो ‘आरा’ के अपना से बढ़िके अहमियत देत देखात बाड़ें। ‘आरा’ लेखक के जिनगी के क्रम में एगो अइसन सोपान का रूप में सोझा आ रहल बा, जवन उनुका के उनुका हिसाब से रूढ़िवाद से नाता तूरत मार्क्सवाद से जुड़ला के अपना तर्क का संगे सही माने खातिर तइयार कर रहल बा।अपना परंपरा के रूढ़िग्रस्त कहि के नकारे क पाठ कतना उचित भा अनुचित ह, एह पर इहाँ बात कइल हमरा नीमन नइखे लागत। हर बेकती के आपन एगो सोच होले, जवना का संगे उ अपना जिनगी के राह तय करेला। कुछ अइसने इहाँ लेखक के दीहल साक्षो बता रहल बा।

लेखक अपने विद्यार्थी जीवन में मिलल गुरु लोग जइसे  रामेश्वर नाथ तिवारी, मुरली मनोहर प्रसाद सिन्हा, चंद्रभूषण तिवारी, दीनानाथ सिंह, जितराम पाठक, गदाधर सिंह, कपिलदेव पाण्डेय, हरिदर्शन राय, रामप्रवेश राय जस पढ़ावे वाला त दूसरा ओरि रामेश्वर नाथ तिवारी, मधुकर सिंह, विजेंद्र अनिल, मिथिलेश्वर, नीरज सिंह, चितरंजन सिंह, भुवनेश्वर श्रीवास्तव ‘भानु’, चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह , डॉ. बनारसी प्रसाद भोजपुरी आदि जइसन दिग्गज साहित्यकारन  के संग साथ आ साहचर्य के बड़ नीमन ढंग से किताबि में परोसले बाड़ें। एह सब लोगन से मिलल नेह-छोह आ ज्ञान से अभिभूत बाड़ें। अइसन गुरु लोगन के सानिध्य का चलते लेखक के अपना जे एन यू में ना पढ़ला के अफसोस से दूर रखले बा। अपने स्मृति आख्यान में लेखक एकरा के बड़ा मजबूती से सवीकरलो बाड़न। लेखक बड़ बारीकी का संगे अपने ‘आरा’ शहर, अपने ‘आशा पड़री’ गाँव ,अपने जैन कालेज का संगही कई साहित्यकारन से आगु बढ़े के मिलल मंत्रन के आजु ले अपना हिया में सँजो के आ जोगा के रखले बाड़न। एह बाति के प्रमाण रउवो देख सकेनी –

” अपने प्रिय छोटे भाई श्री चंद्रेश्वर को इस सुझाव के साथ कि बाहरी प्रतिक्रियाओं पर विशेष ध्यान देने की अपेक्षा अपने अंतरतम की आवाज को सुने और ‘ संतुलित मानवीय विवेक ‘ के अनुसार निर्णय लें। भटकाव से बचने के यह नितांत आवश्यक है।”

ई सुझाव लेखक के सुप्रसिद्ध कहानीकार मिथिलेश्वर जी मिलल रहे। मने लेखक अध्यापन से जुड़ल भा साहित्य से जुड़ल लोगन के मूल्यांकन बस उनुका विधा केन्द्रित होके नइखे कइले बलुक ओह लोगन के हर पक्ष पर ताक-झाँक कइले बाड़न जवना से मनई के जिनगी के दशा-दिशा के परख आ पहिचान होला। लेखक कवनो अध्यापक, साहित्यकार भा मित्र के लेके कबों एक पक्षीय होत नइखे देखात। मूल्यांकन मूल्यांकने लेखा भइल बा, जवन लेखक के बेबाक व्यक्तित्व के परिचायक बा। एकरा संगही लेखक आरा के पारिवारिक आ पारंपरिक, लोक व्यवहार, राजनीतिक हलचल आदि के समझे खातिर नीमन आधार मुहैया करावे में जरिको कमी नइखे छोड़ले। कवनो काम भा जगह जब केहुओ के रचेले त ओकरा प्रति कइसे ऋण चुकावल जाव, एकर उपायुक्त उदाहरण लेखक पाठक लो के सोझा बड़ी उदारता का संगे रखले बाड़न।

‘आपन आरा’ से गुजरत बेरा कई बेर अइसन लागल कि संस्मरण के कइसे दस्तावेज़ बनावल जा सकेला, एकर सूत्र एह किताब में बड़ बिस्तार में उकेरल गइल बा। ई संस्मरण कतों उबाऊ भा नीरस नइखे भइल, जवन लेखक के दक्षता के मजगुत प्रमाण बा। सभेले मजगर बाति कि संस्मरण के लेखक लोगन के एक बेर एह किताबि से जरूर सरोकार बनावे के चाही, कुछ अइसने हमरा बुझाइल। पुस्तक रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित भइल बा। प्रकाशको के काम सराहे जोग बा। एकरा संगही हम आदरणीय अग्रज चंद्रेश्वर जी के बधाई आ शुभकामना देत ई कह सकतानी कि भोजपुरी बोले-समझे वाला लोगन के खातिर ई किताबि मजगर आ पठनीय किताबियन के क्रम में आगे देखाई देही।

 

पुस्तक का नाम – आपन आरा

विधा- संस्मरण( स्मृति आख्यान)

लेखक- डॉ  चंद्रेश्वर

मूल्य- रु 200/- मात्र

प्रकाशक- रश्मि प्रकाशन, लखनऊ

 

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता

 

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